Wednesday 8 February 2017

ये हक़ीक़त है कि...


ये हक़ीक़त है कि होता है असर बातों मे, 
तुम भी खुल जाओगे दो-चार मुलक़ातों मे, 

तुम से सदियों की वफाओं का कोई नाता न था, 
तुम से मिलने की लकीरें थीं मेरे हाथों मे, 

तेरे वादों ने हमें घर से निकलने न दिया, 
लोग मौसम का मज़ा ले गए बरसातों में, 

अब न सूरज न सितारे न शमां न चांद, 
अपने ज़ख्म़ों का उजाला है घनी रातों मे।
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इस चमन में उदासी बनी रह गयी, 
तुम न आये , तुम्हारी कमी रह गयी। 
हसरतों में जिया फिर भी अफ़सोस है, 
जुस्तजू दुआओं की बची रह गयी। 
दिल जलाने से फुर्सत कहाँ थी उसे, 
शम्मा जो थी बुझी वो बुझी रह गयी। 
जो मिला था बसर के लिये कम न था, 
पर ज़रूरत नयी कुछ लगी रह गयी। 
पत्थरों के दिलों में नमी देखिये, 
जो उगी घास थी वो हरी रह गयी। 
जिस नज़र की हिमायत में तुम थे सदा, 
वो नज़र तो झुकी की झुकी रह गयी। 
ओस के चंद कतरों से होता भी क्या, 
प्यास जैसी थी वैसी ही रह गयी।
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जमाना सो गया और मैं जगा रातभर तन्हा 
तुम्हारे गम से दिल रोता रहा रातभर तन्हा । 

मेरे हमदम तेरे आने की आहट अब नहीं मिलती 
मगर नस-नस में तू गूंजती रही रातभर तन्हा । 

नहीं आया था कयामत का पहर फिर ये हुआ 
इंतजारों में ही मैं मरता रहा रातभर तन्हा । 

अपनी सूरत पे लगाता रहा मैं इश्तहारे-जख्म 
जिसको पढ़के चांद जलता रहा रातभर तन्हा ।

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